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विश्‍व धर्म सम्‍मेलन (14 सितंबर 2021), मुखपृष्ठ संपादकीय परिवार

विश्व-धर्म-महासभा

स्वामी विवेकानंद

शिकागो, ११ सितंबर, १८९३

अमेरिकावासी बहनों तथा भाइयों,

आपने जिस सौहार्द और स्नेह के साथ हम लोगों का स्वागत किया है, उसके प्रति आभार प्रकट करने के निमित्त खड़े होते समय मेरा हृदय अवर्णनीय हर्ष से पूर्ण हो रहा है। संसार में संन्यासियों की सबसे प्राचीन परंपरा की ओर से मैं आपको धन्यवाद देता हूँ; धर्मों की माता की ओर से धन्यवाद देता हूँ; और सभी संप्रदायों एवं मतों के कोटि-कोटि हिंदुओं की ओर से भी धन्यवाद देता हूँ। :

मैं इस मंच पर से बोलनेवाले उन कतिपय वक्ताओं के प्रति भी धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ, जिन्होंने प्राची के प्रतिनिधियों का उल्लेख करते समय आपको यह बतलाया है कि सुदूर देशों के ये लोग सहिष्णुता का भाव विविध देशों में प्रसारित करने के गौरव का दावा कर सकते हैं। मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। मुझे आपको यह बतलाते हुए गर्व होता है कि हमने अपने वक्ष में यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट अंश को स्थान दिया था, जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी, जिस वर्ष उनका पवित्र मंदिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने महान जरथुष्ट्र जाति के अवशिष्ट अंश को शरण दी और जिसका पालन वह अब तक कर रहा है।...

भाइयो, मैं आप लोगों को एक स्तोत्र की कुछ पंक्तियाँ सुनाता हूँ, जिसकी आवृत्ति मैं अपने बचपन से करता रहा हूँ और जिसकी आवृत्ति प्रतिदिन लाखों मनुष्य किया करते हैं :

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव॥ --'जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो!भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जाने वाले लोग अंत में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं' :...

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वैचारिकी

आध्यात्मिक गुरु स्‍वामी विवेकानंद और उनका संदेश

स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद का नाम लेते ही हमारे मन मस्तिष्क में एक ऐसे भगवाधारी संन्यासी की छवि उभरती है जिन्होंने भारतीय सभ्यता, संस्कृति को अपने चिंतन का आधार बनाते हुए भारत की छवि को वैश्विक पहचान दी। एकला चलो रे का अनुसरण करते हुए उन्होंने संपूर्ण विश्व का भ्रमण किया और भारत और भारतीय दृष्टि को विश्व के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाया। स्वामी जी को लगभग चार दशक से भी कम जीवन मिला लेकिन उन्होंने अल्प आयु में भी वह सब संभव कर दिखाया जिसके लिए बड़े-बड़े विचारक अपनी पूरी उम्र लगा देते हैं। वे पुरोहितवाद, धार्मिक आडंबरों, रूढ़ियों, कर्मकांड़, कठमुल्लावाद के सख्त खिलाफ थे। स्वामी जी सोचते थे कि अध्यात्म विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा। उनका आह्रवान किया कि उठो जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। अपने नर जन्म को सफल करो और तब तक नहीं रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। इस कड़ी में स्वामी विवेकानंद के व्यक्तित्व-कृतित्व पर प्रकाश डालती भगिनी निवेदिता जी की लिखित टिप्पणी के साथ प्रस्तुत।

वैचारिकी
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भक्तियोग
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पातंजल योगसूत्र
वेदांत

पत्र संग्रह
पत्र-व्यवहार : १

संस्मरण
स्वामी जी के साथ दो-चार दिन

यात्रावृत्त संग्रह
"यूरोप यात्रा के संस्मरण"

संवाद संग्रह
अमेरिका यात्रा में पश्चिमी शिष्यों से संवाद

लेख
स्वामी विवेकानंद के लेख

व्याख्यान
विश्व-धर्म-महासभा, शिकागो, ११ सितंबर, १८९३ ई०

संरक्षक
प्रो. रजनीश कुमार शुक्‍ल
(कुलपति)

परामर्श समिति
प्रो. हनुमानप्रसाद शुक्‍ल
प्रो. कृष्‍ण कुमार सिंह
प्रो. प्रीति सागर
प्रो. अवधेश कुमार
प्रो. अखिलेश कुमार दुबे

संयोजक
डॉ. रामानुज अस्‍थाना

संपादक
अशोक कुमार मिश्र
ई-मेल : hindisamay.mgahv1@gmail.com

संपादकीय सहायक
डॉ. कुलदीप कुमार पाण्‍डेय
ई-मेल : hindisamay.mgahv1@gmail.com

तकनीकी सहायक
रविंद्र सा. वानखडे

विशेष तकनीकी सहयोग
डॉ. अंजनी कुमार राय
डॉ. गिरीश चंद्र पाण्‍डेय

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ISSN 2394-6687

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